Wednesday, September 11, 2013

हमर तांका


खियागेल छै
लोकक आवरण
अपनहिमे
आरोप निराधार
मुखौटामे जिनगी ।
    (९९)

जल–फूहार
अनुपम सुगंध
मातल मोन
विद्रोह करै अछि
उन्मुक्तिक प्रयास ।
     (१००)



फेरो चुनाव
विचित्र श्वरसब
नेताक हँसी
खोलैत अछि पोल
गुनझिक्कु जनता ।
     (१०१)

आकाशगंगा
विज्ञानक प्रमाण
आकारहीन
मुनुष्यक आकांक्षा
मध्यरातिमे फुहीँ ।
    (१०२)

सम्बन्धसब
सापेक्ष होइ अछि
शायद आब
परिवर्तन चाही
परिभाषासबमे ।
    (१०३)

नदी किनार
हमरे घरलग
बहि अबैछ
सम्भावनाक बाढि
हँसै अछि जिनगी ।
    (१०४)

मेघ अबैछ
नहि बरसै छैक
चलि जाइछ
सुखाएल छै नोर
सृष्टि छै असन्तुष्ट ।
    (१०५)

सुगंधसब
कतहु नहि छैक
उडि गेलैक
नहि जानि किएक
भोर हेतै कि नहि ?
    (१०६)

सडकबीच
खधियासब छैक
लोक–कर्तुत
डुबै अछि मनुक्ख
मुडी तकैत अछि ।
    (१०७)

केना चलतै
आदमीक गुजारा
रीक्त छै हात
रोजगार अभाव
काहि कटैछ लोक ।
    (१०८)

एक सपना
हमसभ जी सकी
एक यथार्थ
जिअल नहि भेल
पल–पल छै मृत्यु ।
    (१०९)

बुढाएल छै
लोक आ चश्मा दुनु
नहि देखैछ
सिर्जनाक नियति
दृष्टिमे छै रतौंधी ।
    (११०)

मिथिलाधाम
अपसयाँत अछि
युग–युगसँ
अस्तित्वक छै खोजी
संघर्ष जारी छैक ।
    (१११)

बान्हि कऽ मुट्ठी
बढिरहल अछि
एतुका लोक
आब किछु हेतैक
भविष्यक प्रतीक्षा ।
    (११२)

पर्दा खुजैछ
सुरु भेलै नाटक
पूरान पात्र
पूराने कथा छैक
जारी छै नव–खोजी
    (११२)

नव जमाना
‘मोवाइल’ छै लोक
एत्तऽ सँ ओत्तऽ
बदलैत सम्यता
बदलैत संस्कृति ।
    (११४)

भरिपोखरि
लागल छेक भीड
जलकुम्भीक
पसरल साम्राज्य
वेदना एतहु छै ।
   (११५)

सुतल लोक
जगबाक नाटक
आँखि बन्दे छै
किछु नहि देखैछ
किछु नहि बुझैछ ।
   (११६)

रातिक रानी
दौगै सडकबीच
नगरवधु
अस्तित्व लुटबैछ
सटैछ अँत–भित ।
   (११७)

उनटै अछि
किताब पन्नासब
फाटल गत्ता
आँखि मुनने लोक
नहि पढैछ केओ ।
   (११८)

बहैछ नोर
अनेरे–अनेरेमे
गंगा बहैछ
मोनक एक कोन
रीक्त अछि वर्सोसँ ।
   (११९)

टूटैत लोक
ढहैछ परिवार
पजेवा–ढेर
बड कठीन छैक
देवाल जोडनाइ ।
   (१२०)

अलमिरामे
बन्न छै यादसब
खोलब जुनि
बाढि आबि जाएत
गंगा–जमुनामे ।
   (१२१)













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