हमर तांका
खियागेल छै
लोकक आवरण
अपनहिमे
आरोप निराधार
मुखौटामे जिनगी ।
(९९)
जल–फूहार
अनुपम सुगंध
मातल मोन
विद्रोह करै अछि
उन्मुक्तिक प्रयास ।
(१००)
फेरो चुनाव
विचित्र श्वरसब
नेताक हँसी
खोलैत अछि पोल
गुनझिक्कु जनता ।
(१०१)
आकाशगंगा
विज्ञानक प्रमाण
आकारहीन
मुनुष्यक आकांक्षा
मध्यरातिमे फुहीँ ।
(१०२)
सम्बन्धसब
सापेक्ष होइ अछि
शायद आब
परिवर्तन चाही
परिभाषासबमे ।
(१०३)
नदी किनार
हमरे घरलग
बहि अबैछ
सम्भावनाक बाढि
हँसै अछि जिनगी ।
(१०४)
मेघ अबैछ
नहि बरसै छैक
चलि जाइछ
सुखाएल छै नोर
सृष्टि छै असन्तुष्ट ।
(१०५)
सुगंधसब
कतहु नहि छैक
उडि गेलैक
नहि जानि किएक
भोर हेतै कि नहि ?
(१०६)
सडकबीच
खधियासब छैक
लोक–कर्तुत
डुबै अछि मनुक्ख
मुडी तकैत अछि ।
(१०७)
केना चलतै
आदमीक गुजारा
रीक्त छै हात
रोजगार अभाव
काहि कटैछ लोक ।
(१०८)
एक सपना
हमसभ जी सकी
एक यथार्थ
जिअल नहि भेल
पल–पल छै मृत्यु ।
(१०९)
बुढाएल छै
लोक आ चश्मा दुनु
नहि देखैछ
सिर्जनाक नियति
दृष्टिमे छै रतौंधी ।
(११०)
मिथिलाधाम
अपसयाँत अछि
युग–युगसँ
अस्तित्वक छै खोजी
संघर्ष जारी छैक ।
(१११)
बान्हि कऽ मुट्ठी
बढिरहल अछि
एतुका लोक
आब किछु हेतैक
भविष्यक प्रतीक्षा ।
(११२)
पर्दा खुजैछ
सुरु भेलै नाटक
पूरान पात्र
पूराने कथा छैक
जारी छै नव–खोजी
(११२)
नव जमाना
‘मोवाइल’ छै लोक
एत्तऽ सँ ओत्तऽ
बदलैत सम्यता
बदलैत संस्कृति ।
(११४)
भरिपोखरि
लागल छेक भीड
जलकुम्भीक
पसरल साम्राज्य
वेदना एतहु छै ।
(११५)
सुतल लोक
जगबाक नाटक
आँखि बन्दे छै
किछु नहि देखैछ
किछु नहि बुझैछ ।
(११६)
रातिक रानी
दौगै सडकबीच
नगरवधु
अस्तित्व लुटबैछ
सटैछ अँत–भित ।
(११७)
उनटै अछि
किताब पन्नासब
फाटल गत्ता
आँखि मुनने लोक
नहि पढैछ केओ ।
(११८)
बहैछ नोर
अनेरे–अनेरेमे
गंगा बहैछ
मोनक एक कोन
रीक्त अछि वर्सोसँ ।
(११९)
टूटैत लोक
ढहैछ परिवार
पजेवा–ढेर
बड कठीन छैक
देवाल जोडनाइ ।
(१२०)
अलमिरामे
बन्न छै यादसब
खोलब जुनि
बाढि आबि जाएत
गंगा–जमुनामे ।
(१२१)
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